छठ पर्व : प्रकृति-साधना, कर्तव्य-बोध और लोक-आस्था का अद्भुत संगम : प्रो. बिहारी लाल शर्मा
वाराणसी,27 अक्टूबर । भारतीय संस्कृति की विशेषता यह है कि यहां प्रत्येक पर्व आज भी केवल उत्सव नहीं, बल्कि जीवन-दर्शन का वाहक है। हमारे पर्व हमें यह स्मरण कराते हैं कि जीवन मात्र सांसारिक उपभोग का नाम नहीं, अपितु आत्मानुशासन, प्रकृति-समन्वय, कर्तव्य-निष्ठा और सामाजिक सहअस्तित्व का भी अपरिहार्य मार्ग है। इसी मूल भावना के साथ मनाया जाने वाला छठ पर्व भारतीय लोक-आस्था का ऐसा विराट उत्सव है, जिसमें लोक की ऊर्जा, श्रम की गरिमा, मातृ-शक्ति का गौरव, जल-धरा-आकाश का पवित्र तादात्म्य और सूर्य-उपासना की प्राचीनतम परम्परा एक साथ साकार होती है। ये उद्गार संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बिहारी लाल शर्मा के है।
प्रोफेसर शर्मा साेमवार काे डाला छठ पर्व की महिमा बता रहे थे। उन्होंने कहा कि छठ पर्व का उद्गम अत्यन्त प्राचीन है। वेदों में उल्लिखित सूर्योपासना की परम्परा से इसका संबंध माना जाता है। ऋग्वेद में सूर्य को “प्राणों का प्रदाता, जीवन का आधार और सात्विक ऊर्जा का स्रोत” कहा गया है।
उन्हाेंने कहा कि भारतीय ज्ञान-परम्परा में सूर्य ज्ञान, तप, तेज, श्रम, अनुशासन और सत्यनिष्ठा का प्रतीक है। छठ में हम सूर्य के इसी जीवनदायी स्वरूप की आराधना करते हैं क्योंकि सूर्य सार्वभौमिक है। न वह किसी जाति का है, न किसी सम्प्रदाय का, वह सभी के लिए समान है। इसी से छठ अहंकार के पूर्णतःत्याग, समता और समरसता का पर्व भी है।
लोक-जीवन में छठ का दार्शनिक अर्थ
प्रोफेसर शर्मा ने बताया कि छठ का सार यह है कि मनुष्य अपने और प्रकृति के मध्य सामंजस्य स्थापित करे। आज जब आधुनिकता की अंधी दौड़ में मनुष्य प्रकृति से दूर हो गया है, तब छठ हमें यह स्मरण कराता है कि प्रकृति हमारी माता है, और हम उसके पुत्र,हमारी संस्कृति में नदी केवल जल-धारा नहीं, बल्कि धारिणी शक्ति है; मिट्टी केवल भूमि नहीं, बल्कि अन्नदायिनी मातृभूमि है; सूर्य केवल तारा नहीं, बल्कि जीवन का स्रष्टा है। छठ का अनुष्ठान इसी आदर-बोध की पुनःस्थापना है।
नारी शक्ति और तप की महिमा
कुलपति प्रोफेसर शर्मा बताते हैं कि छठ व्रत मुख्यतः मातायें और बहनें करती हैं। यह व्रत केवल धार्मिक नहीं, बल्कि शारीरिक अनुशासन और मानसिक धैर्य का अद्वितीय उदाहरण है। चार दिनों तक व्रती तप, संयम, एकाग्रता और सेवा-भाव से पूर्ण नियमों का पालन करती हैं। इसमें नहाय-खाय– शरीर और आहार की पवित्रता, खरना – आत्म-शुद्धि और आंतरिक शांतिसाधना के लिए है। 36 घंटे का निर्जल उपवास – संकल्प और आत्म-अनुशासन का चरम हैं। अर्घ्य– सूर्य की आराधना, कृतज्ञता और प्रकृति का वंदन है। यह संकल्प व्रत हमें सिखाता है कि जीवन में प्राप्ति केवल इच्छाओं से नहीं, बल्कि त्याग, श्रम और अनुशासन से होती है।
सामूहिक एकता और सामाजिक समरसता
छठ पर्व में समाज का कोई भी वर्ग, जाति, पद या सम्पत्ति भेद दिखाई नहीं देता। सारे लोग एक समान भावना से नदी-घाट पर एकत्र होते हैं। लोग एक-दूसरे की सेवा करते हैं, घाट बनाते हैं, स्वच्छता का ध्यान रखते हैं, प्रसाद बाँटते हैं बिना किसी स्वार्थ, बिना किसी भेद केयह दृश्य अपने आप में भारतीय सामाजिक एकता का जीवन्त दर्शन है।
प्रकृति-चेतना और पर्यावरण संरक्षण का सन्देश
छठ पर्व जितना धार्मिक है, उतना ही वैज्ञानिक और पर्यावरणीय भी। इस पर्व में प्रयुक्त प्रसाद गन्ना, केला, फल, गुड़, चावल, गेहूं और मिट्टी के दीपक सब कुछ स्थानीय, स्वदेशी और जैविक होता है। यह पर्व हमें प्रकृति के साथ संतुलन, स्वच्छता, स्वास्थ्य और टिकाऊ जीवनशैली अपनाने की प्रेरणा देता है। आज के समय में, जब पर्यावरण-संकट वैश्विक विषय बन चुका है, छठ का यह सन्देश और भी महत्वपूर्ण है। प्रकृति का सम्मान करेंगे, तभी प्रकृति हमें जीवन देगी।
उन्होंने बताया कि छठ पर्व हमें यह भी सिखाता है कि परिवार केवल रक्त सम्बन्ध नहीं, बल्कि भावनात्मक दायित्व का नाम है। व्रती अपनी सन्तान, परिवार और समाज के कल्याण की कामना करती हैं परन्तु यह केवल मां की जिम्मेदारी नहीं है, परिवार के प्रत्येक सदस्य की भूमिका समान होती है। पुरुष, बच्चे, युवा सभी मिलकर प्रसाद बनाते, घर सजाते, घाट तैयार करते हैं। यह सामूहिक श्रम हमें यह शिक्षा देता है कि घर और समाज तभी सुंदर बनता है जब सब मिलकर जिम्मेदार बनें।
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